आरोपों की आँधी में घिरती यूनिवर्सिटियाँ और सियासत

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(रईस खान)

भारत में एक विश्वविद्यालय का निर्माण किसी साधारण इमारत का निर्माण नहीं होता। यह वर्षों की जद्दोजहद, करोड़ों रुपये के निवेश, दर्जनों विभागों की क्लियरेंस और अंतहीन सरकारी प्रक्रियाओं से गुजरकर आकार लेता है। फाइलें महीनों सरकारी गलियारों में धूल खाती रहती हैं, निरीक्षण बार-बार होते हैं, और कई बार तो ऐसा लगता है कि शिक्षा संस्थान खोलना सरकारी तंत्र से ‘कृपा’ प्राप्त करने की परीक्षा है, न कि देश की शिक्षा-व्यवस्था को मजबूत करने का प्रयास।

लेकिन जितनी मुश्किलें और कड़ी प्रक्रियाएँ एक विश्वविद्यालय को शुरू करने में लगती हैं, उतनी ही तेजी सिर्फ़ दो दिन की सनसनी, आधी-अधूरी रिपोर्ट या राजनीतिक माहौल के दबाव में उसकी मान्यता रद्द करने में दिखाई देती है। यह विडंबना सिर्फ़ चुभने वाली नहीं, खतरनाक है। सवाल यह है कि जब अदालतें कहती हैं कि संस्थान सही है, नियमों के भीतर है, तब भी प्रशासनिक आदेशों की कटौती उस फैसले से ऊपर कैसे हो जाती है? क्या भारत में अदालतें सिर्फ़ कागज़ी निर्णय देने वाली संस्था बनकर रह गई हैं?

यह भी ध्यान देने वाली बात है कि ऐसी सख्ती तब और बढ़ जाती है जब मामला किसी माइनॉरिटी विश्वविद्यालय से जुड़ा हो। हाल के वर्षों में जिन संस्थानों पर सबसे तेज़ दबाव, जांचें और बदनामी का बोझ डाला गया है, वे अधिकतर माइनॉरिटी समुदाय से जुड़े हैं। अल-फलाह यूनिवर्सिटी, जौहर यूनिवर्सिटी, ग्लोकल यूनिवर्सिटी, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, और कई अन्य संस्थान बार-बार इस राजनीतिक तूफ़ान के केंद्र में खड़े किए गए। सवाल यह नहीं कि इन संस्थानों में गलती या अनियमितता हो ही नहीं सकती। हो सकती है, किसी भी बड़े संस्थान में हो सकती है। लेकिन सवाल यह है कि क्या ग़लती सिर्फ़ माइनॉरिटी संस्थानों में ही होती है? देश की दर्जनों गैर-माइनॉरिटी निजी यूनिवर्सिटियों में डिग्री घोटाले पकड़े गए, मेडिकल कॉलेजों में फर्जी ऐडमिशन और रिश्वतखोरी के केस सामने आए, इंजीनियरिंग संस्थानों की मान्यता NAAAC से लेकर UGC तक ने रद्द की। लेकिन इन मामलों में कभी भी पूरे संस्थान को राष्ट्र-विरोधी, संदिग्ध, या खतरा नहीं बताया गया। वहाँ आरोप व्यक्ति पर लगे, जाँच व्यक्ति की हुई, और कार्रवाई संस्थान पर नहीं, प्रक्रिया पर की गई। फिर माइनॉरिटी विश्वविद्यालयों पर यह दोहरा व्यवहार क्यों?

यहाँ तर्क का इस्तेमाल किया जाए तो यह स्पष्ट दिखता है कि विश्वविद्यालय को बदनाम करने का मतलब उसकी साख पर नहीं, उसके पीछे खड़े समुदाय पर प्रहार होता है। प्रशासनिक कार्रवाई कई बार तथ्यों पर नहीं, बल्कि एक विशेष माहौल, राजनीतिक दबाव और मीडिया द्वारा निर्मित कथा पर आधारित होती है। सोशल मीडिया में दो वीडियो वायरल हुए, किसी अधिकारी की एक टिप्पणी आई, और अचानक ऐसा माहौल बना दिया जाता है मानो पूरा संस्थान किसी साजिश का हिस्सा हो। क्या सच में कोई विश्वविद्यालय, जिसमें करोड़ों का इंफ्रास्ट्रक्चर, हज़ारों छात्र, सैकड़ों शिक्षक, और वर्षों का संघर्ष लगा हो, आतंक फैलाने के लिए बनाया जा सकता है? यह आरोप तर्क से नहीं, पूर्वाग्रह से पैदा होता है। क्योंकि आतंकवाद दुनिया के किसी भी हिस्से में फर्जी नोटों या अवैध हथियारों की तरह संस्थान चलाकर नहीं बढ़ता। यह एक पूरी तरह अलग आपराधिक ढांचा है जिसका शिक्षा से कोई संबंध ही नहीं। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि जब भी किसी माइनॉरिटी संस्थान पर आरोप लगता है, कई लोग तथ्यों की बजाय भावना और धारणा पर भरोसा कर लेते हैं।

यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि जब कोई गैर-माइनॉरिटी संस्थान नियमों का उल्लंघन करता है, तो उसे सुधार का अवसर दिया जाता है, नोटिस, समयसीमा, स्पष्टीकरण, फिर से निरीक्षण। लेकिन माइनॉरिटी संस्थानों के लिए अक्सर पहला नोटिस ही अंतिम नोटिस साबित होता है। यह न सिर्फ़ असमानता है, बल्कि एक गहरे बैठे पूर्वाग्रह की मिसाल है।

भारत का लोकतंत्र तब तक संपूर्ण नहीं हो सकता जब तक समान न्याय सिर्फ़ किताबों में लिखा सिद्धांत न रहकर, प्रशासन और शिक्षा के क्षेत्र में वास्तविकता न बन जाए। सवाल यह नहीं कि जांचें क्यों होती हैं।सवाल यह है कि जांचें निष्पक्ष क्यों नहीं दिखतीं? सवाल यह नहीं कि कार्रवाई क्यों होती है। सवाल यह है कि कार्रवाई एकतरफा क्यों लगती है? और सबसे बड़ा प्रश्न, क्या हमारे यहां गलती करने वाले व्यक्ति को सज़ा दी जाती है, या संस्था को इसलिए सज़ा मिलती है कि वह किसी विशेष पहचान से जुड़ी है?

भारत को यह तय करना ही होगा कि वह शिक्षा को पूर्वाग्रह की राजनीति से बचाएगा या उसे भी वही हथियार बना देगा जिससे समाज को विभाजित किया जाता है। क्योंकि जब विश्वविद्यालयों को आरोपों की राजनीति में जलाया जाता है, तब उसकी आग सिर्फ़ इमारत नहीं जलाती, वह पीढ़ियों की शिक्षा, भविष्य और भरोसे को राख बना देती है।

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