बिहार में मुस्लिम वोटरों की अनदेखी,एक चिंताजनक गिरावट

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(रईस खान)

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के नतीजे आ चुके हैं, लेकिन एक आंकड़ा सबको सोचने पर मजबूर कर रहा है। जहां 2020 में 19 मुस्लिम विधायक चुने गए थे, वहीं इस बार यह संख्या घटकर महज 10 रह गई। कुल 243 सीटों में मुस्लिम प्रतिनिधित्व अब सिर्फ 4 प्रतिशत के आसपास सिमट गया है। यह सिर्फ संख्या की बात नहीं, बल्कि लोकतंत्र की एक कमजोरी का संकेत है। बिहार की 17.7 प्रतिशत मुस्लिम आबादी, यानी करीब 1.3-1.4 करोड़ वोटर, अब भी अपनी आवाज विधानसभा में कम सुनाई दे रही है। क्यों हो रहा है ऐसा? और इसका क्या मतलब है?

सबसे पहले आंकड़ों पर नजर डालें। इस चुनाव में सभी पार्टियों ने कुल 35 के आसपास मुस्लिम उम्मीदवार उतारे, जो 2020 के 50 से ज्यादा की तुलना में काफी कम है। एआईएमआईएम ने 25 टिकट दिए, लेकिन सिर्फ 5-6 जीते। महागठबंधन (आरजेडी-कांग्रेस) ने 10-12 उतारे, जबकि एनडीए (जेडीयू-बीजेपी) ने मुश्किल से 5। पार्टियां मुस्लिम टिकट कम करके हिंदू वोटों को नाराज न करने की चाल चलीं, लेकिन नतीजा उलटा पड़ा। मुस्लिम वोट बंट गया, कुछ एनडीए की ‘विकास’ बातों पर चले, कुछ एआईएमआईएम की ओर। सीमांचल जैसे इलाकों में, जहां 40-60 प्रतिशत मुस्लिम वोटर हैं, वोट बंटवारे ने महागठबंधन को बुरी तरह नुकसान पहुंचाया। किशनगंज, अमौर जैसी सीटें एनडीए के खाते में चली गईं।

यह गिरावट नई नहीं, बल्कि पुरानी सियासत का नतीजा है। बिहार में मुस्लिम राजनीति की जड़ें गहरी हैं। स्वतंत्र भारत में कांग्रेस ने मुसलमानों को ‘सेकुलर’ क्षेत्र में रखा, लेकिन लालू यादव के दौर में ‘मुस्लिम-यादव’ समीकरण ने उन्हें मजबूत बनाया। 1990 के बाद मुस्लिम विधायक 20-25 तक पहुंचे। नीतीश कुमार ने पसमांदा मुस्लिमों (जो 63 प्रतिशत हैं, जैसे अंसारी-कुरैशी) को आरक्षण और विकास का लालच दिया। लेकिन 2020 से एआईएमआईएम का आगमन और ध्रुवीकरण ने सब बदल दिया। इस बार मुस्लिम वोटरों ने रोजगार, सड़कें और महिला सशक्तिकरण को तरजीह दी, न कि सिर्फ धर्म को। कुल वोटिंग 67 प्रतिशत रही, लेकिन मुस्लिम इलाकों में यह 60-65 पर रुक गई, असंतोष का निशान।

अब सवाल यह है कि आगे क्या? मुस्लिम समुदाय को अब सिर्फ वोट बैंक की तरह नहीं, बल्कि साझेदार की तरह देखना होगा। पार्टियों को चाहिए कि वे मुस्लिम उम्मीदवारों को ज्यादा सीटों पर उतारें, खासकर उन इलाकों में जहां उनकी आबादी ज्यादा है। एआईएमआईएम जैसी पार्टियां अच्छा विकल्प दे रही हैं, लेकिन बिना एकजुटता के वे ‘स्पॉइलर’ ही बनेंगी। सरकार को पसमांदा मुस्लिमों के लिए ठोस योजनाएं लानी चाहिए, रोजगार, शिक्षा और सुरक्षा। अगर मुस्लिम वोटरों की अनदेखी जारी रही, तो बिहार का ‘एमवाई’ समीकरण टूटेगा और नया ध्रुवीकरण जन्म लेगा।

बिहार का लोकतंत्र सबको जगह दे, यही सच्ची जीत होगी। वरना, 17 प्रतिशत आबादी का 4 प्रतिशत प्रतिनिधित्व सिर्फ आंकड़ा नहीं, बल्कि एक चेतावनी है। समय है सोचने का, बदलने का।

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