बेमिसाल…इज्तेमाई निकाह: भोपाल इज्तिमा की रूह में बसती सादगी

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(रईस खान)

भोपाल के ईंटखेड़ी की हवा हर साल नवंबर में कुछ अलग ही रंग ले लेती है। आसपास की गलियों से लेकर दूर-दराज़ के रास्तों तक, हर तरफ से आती आवाज़ें एक ही ओर बढ़ती हैं घासीपुरा मैदान की तरफ, जहाँ दुनिया के सबसे बड़े इस्लामी जमावड़ों में से एक, भोपाल इज्तिमा, अपनी पूरी रौनक के साथ आबाद होता है। 2025 का यह 78वाँ इज्तिमा भी कुछ ऐसा ही था। 12 लाख से ज़्यादा लोगों का सैलाब, 23 देशों से पहुँची जमातें, 600 एकड़ में फैला विशाल इंतज़ाम और हर तरफ एक सादगीभरा, आध्यात्मिक माहौल।

इज्तिमा में आने वाले लोग सिर्फ दीन की बातें सुनने, नमाज़ अदा करने और दुआ में हाथ उठाने ही नहीं आते। इस माहौल की एक ऐसी परंपरा भी है, जिसने इसे दुनिया भर में एक अलग पहचान दी है, इज्तेमाई निकाह, यानी सामूहिक शादी। यह निकाह सिर्फ दो लोगों को जोड़ने का रस्म नहीं, बल्कि समाज को एक बहुत गहरा संदेश देने की कोशिश भी है।सादगी, बराबरी और दहेज जैसी बुराइयों से दूर रहने का संदेश भी।

इज्तिमा के पहले दिन, असर की नमाज़ के तुरंत बाद यह रस्म पूरे वक्त की गंभीरता और सादगी के साथ शुरू होती है। इस बार यही नज़ारा था, सैकड़ों जोड़े, जिनके दिलों में एक नई शुरुआत का शौक, और चेहरों पर इज्तिमा के माहौल की नूरानी छाप। मैदान के अंदर लगी कतारें, सफेद कपड़ों में बैठे दूल्हे, सादगी भरी पोशाकों में आई दुल्हनें। सब बिना किसी तामझाम, बिना किसी शोर-शराबे के अपनी नई ज़िंदगी की शुरुआत के मुहाने पर खड़े थे।

इन शादियों की खूबसूरती यही है कि यहाँ कोई दिखावा नहीं। न दूल्हे की बारात, न डीजे की आवाज़, न भारी-भरकम सजावट। सिर्फ एक शांत, आध्यात्मिक माहौल जिसमें काजी एक साथ दर्जनों, सैकड़ों निकाह पढ़ाते हैं। हर जोड़े से ‘कबूल है’ कहलवाया जाता है। मेहर मामूली रखा जाता है। इतना कि यह याद रहे कि शादी बोझ नहीं है, जिम्मेदारी है।

इस बार भी करीब 300 जोड़े इज्तेमाई निकाह में शामिल हुए। इनमें भोपाल से लेकर उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश के अलग-अलग इलाकों से आए लोग थे। बहुत-सी दुल्हनें दूर-दराज़ से आई थीं, तो कई दूल्हे भोपाल के ही थे। उनके परिवार वाले भी सीमित संख्या में आए, क्योंकि यहाँ भीड़ नहीं, नियत बड़ी होती है।

इज्तिमा से महीनों पहले रजिस्ट्रेशन शुरू हो जाता है। स्थानीय मस्जिदों में आवेदन जमा होते हैं, दस्तावेज़ पूरे होते हैं, और फिर उस दिन दूल्हा-दुल्हन सिर्फ सादे कपड़ों में, बिना किसी खर्च, बिना किसी बोझ के निकाह के लिए आते हैं। निकाह के बाद एक संकल्प-पत्र पर दहेज न लेने-देने और जिम्मेदारियों को निभाने का वादा दर्ज होता है। यही इस निकाह की असल ताक़त है, यह सिर्फ शादी नहीं कराता, बल्कि सोच बदलता है।

निकाह के बाद नए जोड़ों से उलेमा की बातचीत भी इस रस्म का अहम हिस्सा है। मौलाना यूसुफ़ जैसे उलेमा दूल्हा-दुल्हन को समझाते हैं कि शादी सिर्फ दो लोगों का रिश्ता नहीं, बल्कि दो परिवारों का मेल है। इसमें निभाने की जिम्मेदारियाँ, एक-दूसरे का ख्याल रखना, और घर को मोहब्बत और बरकत का जगह बनाना शामिल है।

भोपाल इज्तिमा का यह निकाह सिर्फ एक धार्मिक रस्म नहीं है। यह एक सामाजिक सुधार आंदोलन की तरह है। जिस दौर में शादियाँ लाखों-करोड़ों के खर्च, दहेज और दिखावे की भेंट चढ़ जाती हैं, वहाँ ईंटखेड़ी का यह मैदान कहता है कि शादी मुश्किल नहीं, आसान हो सकती है। यह निकाह उन परिवारों के लिए उम्मीद है जो खर्चों में दब जाते हैं, उन बेटियों के लिए राहत है जिनकी शादी समाज ने कठिन बना दी है।

यह परंपरा आज की नहीं है। 1947 में जब इज्तिमा शुरू हुआ था, उस समय सिर्फ 14 लोगों ने यहाँ निकाह किया था। फिर 1970 के दशक से यह सिलसिला नियमित हुआ, और 2003 में ईंटखेड़ी में आने के बाद यह बड़े पैमाने पर फैल गया। आज यह न सिर्फ मध्य प्रदेश, बल्कि पूरे भारत और दुनिया भर के मुसलमानों के लिए प्रेरणा का मॉडल बन चुका है।

इज्तेमाई निकाह भोपाल इज्तिमा की रूह है,एक ऐसी रूह जो सादगी में इज़्ज़त, और समाज में बदलाव की ताक़त दोनों समेटे हुए है।

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