(रईस खान)
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के दावे पर बहस, हक़ीक़त, इतिहास और हिस्सेदारी की सच्चाई
हाल ही में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सोशल मीडिया पर एक विस्तृत पोस्ट जारी की।
उन्होंने लिखा कि वर्ष 2005 से पहले राज्य में मुस्लिम समुदाय के लिए कोई काम नहीं हुआ और उस समय की सरकारों ने मुसलमानों को सिर्फ़ वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किया। उन्होंने दावा किया कि 2005 के बाद से उनकी सरकार ने मुसलमानों के लिए कई काम किए, जैसे कब्रिस्तानों की घेराबंदी, मदरसों को मान्यता,शिक्षकों को सरकारी वेतन, और मुस्लिम महिलाओं को आर्थिक सहायता।
यह बयान सुनने में आकर्षक है, मगर जब हक़ीक़त और इतिहास की रोशनी में देखा जाए तो तस्वीर कुछ और ही नज़र आती है।
इतिहास को नकारना न इंसाफ़ है, न ज़रूरत
मुख्यमंत्री का यह कहना कि “2005 से पहले मुस्लिमों के लिए कुछ नहीं हुआ”, तथ्यात्मक रूप से सही नहीं है। बिहार मदरसा बोर्ड की स्थापना 1981 में हुई थी, हज कमेटी और अंजुमन-ए-तर्जुमा-ए-उर्दू जैसी संस्थाएं भी पहले की सरकारों की देन हैं।भागलपुर दंगे (1989) के बाद राहत और जांच आयोग की प्रक्रिया भी 1990 के दशक में शुरू हुई थी, जो बाद में नीतीश सरकार ने आगे बढ़ाई।इसलिए यह कहना कि “पहले कुछ नहीं हुआ”, सिर्फ़ राजनीतिक बयानबाज़ी लगती है।
कब्रिस्तान की दीवार बनाम रोज़गार की दीवार
नीतीश सरकार की बड़ी उपलब्धियों में संवेदनशील कब्रिस्तानों की घेराबंदी शामिल है। लेकिन सवाल यह है कि क्या अमन सिर्फ़ दीवारों से कायम होता है? असली शांति तब आती है जब समाज को बराबरी, न्याय और रोज़गार के अवसर मिलते हैं। कब्रिस्तान की दीवारों के साथ अगर स्कूलों,इंडस्ट्रियल ट्रेंनिंग सेंटर्स और रोज़गार के दरवाज़े भी खोले जाते, तो यह उपलब्धि ज़्यादा स्थायी और सार्थक होती।
हक़ीक़त के आंकड़े बोलते हैं
बिहार की आबादी में मुस्लिम समुदाय लगभग 17% है, मगर विधानसभा में प्रतिनिधित्व 6–7% से ज़्यादा नहीं। राज्य की प्रशासनिक सेवाओं, पुलिस और उच्च शिक्षा संस्थानों में भी मुस्लिमों की भागीदारी बहुत कम है। ‘हुनर योजना’ और ‘तालीमी मरकज़’ जैसी योजनाएं कुछ साल चलीं, मगर अब लगभग ठप हैं। कई मदरसे आज भी बिना पर्याप्त इमारत, शिक्षक और संसाधन के संघर्ष कर रहे हैं। अगर सरकार सच में सबका विकास चाहती है, तो इन आंकड़ों पर गौर करना ज़रूरी है।
अब वोट बैंक नहीं, ‘विज़न बैंक’ चाहिए
हर चुनाव से पहले मुसलमानों को याद करना और पुराने दौर को कोसना बिहार की राजनीति का परिचित तरीका बन चुका है। लेकिन अब हालात बदल चुके हैं, मुस्लिम समाज अब सिर्फ़ वोट नहीं देता, सवाल भी पूछता है। वह कब्रिस्तान की दीवारों से ज़्यादा क्लासरूम की छत, उद्योगों की नौकरी और सियासी हिस्सेदारी चाहता है।
अमन और तरक़्क़ी का रास्ता दीवारों से नहीं, बराबरी और इंसाफ़ से होकर जाता है।मुस्लिम समाज को एहसान नहीं, हक़ चाहिए, शिक्षा, रोज़गार और प्रतिनिधित्व के रूप में। सरकारों को चाहिए कि वे इस समुदाय को सिर्फ़ चुनावी मंच पर नहीं, बल्कि नीतियों और फैसलों में भी बराबर की जगह दें।
क्योंकि कब्रिस्तान की दीवारें अमन का प्रतीक नहीं होतीं, अमन की असली बुनियाद है बराबरी, इंसाफ़ और भरोसा।

