आप पीयूष पांडे के बारे में एक पेज में कैसे बात करेंगे? यह तो जैसे किसी धूप को सुई के डिब्बे में बंद करने जैसा है।
तो फिर, उनके पूरे जीवन का बखान करने या उनकी प्रशंसा के गीत गाने के बजाय, हम वैसा ही लिखेंगे जैसा पीयूष हमें सिखाकर गए – सीधा, सादा और वही जो सच में मायने रखता है।
पीयूष के लिए क्या मायने रखता था? सुबह जल्दी उठना और लिखना।
जब भी कोई नया विचार आता, तुरंत अपनी टीम और प्रोडक्शन पार्टनर्स को जगाना। मीटिंग में जाने से पहले टीम की आँखों में देखकर कहना, “फ़्रंट फुट पे खेलो।” मीटिंग से निकलते हुए हमेशा एक पल रुकना और कहना, “वेल प्लेड, पार्टनर।”
उनके ज्ञान में क्रिकेट कुछ इस तरह शामिल था, कि अगर आपको क्रिकेट से मोहब्बत नहीं भी है तो भी, आप इस इंसान को इतना पसंद करते, कि उनके संदर्भ समझने की कोशिश ज़रूर करते।
प्यार हमें परिवार तक लाता है। परिवार पीयूष के लिए सबसे अहम था। आज जब बड़ी–बड़ी यूनिवर्सिटीज़ वर्क-लाइफ़ बैलेंस के कोर्स चला रही हैं, उन्होंने ज़िंदगी में वह संतुलन जीकर दिखाया। 100% अपने काम के लिए और 100% अपने परिवार के लिए। और, यह केवल पीयूष ही कर सकते थे।
ठट्ठा मारकर हँसना उनका सबसे प्यारा शौक़ था। जैसे ही उनके दिमाग़ में कोई चुटकुला आता, उसे वह कह ही देते। फिर चाहे वह मीटिंग में हों या चाहे किसी नए क्लाइंट से पहली बार ही क्यों न मिल रहे हों। यह उनके प्रतिभाशाली दिमाग़ और बच्चे-से दिल का मेल ही था, जिसकी वजह से उनसे मिलने वाला उनसे मोहब्बत किए बिना नहीं रह पाता था।
अपने क्लाइंट का काम पीयूष के लिए बहुत मायने रखता था और इसीलिए जब भी उन्होंने कहा, “मुझ पर भरोसा कीजिए।” क्लाइंट्स ने उन पर भरोसा किया।
जब उन्होंने कहा, “मेरी टीम को एक दिन और दे दीजिए।” क्लाइंट्स ने हमें एक दिन और दिया।
जब उन्होंने कहा, “ये बढ़िया बनेगा।” सवाल ही नहीं होता था कि कोई इस पर सवाल करे।
ओगिल्वी उनका दूसरा परिवार था। और सोचो तो कई बार ऐसा भी लगता था कि शायद पहला भी वही था। जिस भी तूफ़ान का हमने सामना किया, पीयूष हमारे आगे खड़े रहते, ढाल बनकर? और वो ढाल कभी टूटी नहीं। वे हमारे सामने एक पिता की तरह खड़े रहते।
वे हमें किसी पिता की ही तरह डांटते भी। कुछ घंटे बाद ही किसी मज़ाक से माहौल हल्का कर देते और कहते, “मैं डाँटता हूँ, लेकिन मैं तुमसे प्यार करता हूँ।”
रिश्ते उनके लिए सबसे अहम थे। वो अपने जीवन में आने वाले हर इंसान में इंसानियत देखते थे। कई बार जब आप उनके घर बैठे होते, और वह कहते, “आज तुम्हें चाय के लिए इंतज़ार करना होगा, क्योंकि मेरा सहायक वॉलीबॉल खेलने चला गया है।” वह अपनी टीम को विज्ञापन फ़िल्में दिखाते और पूछते कि क्या उन्हें ये अच्छा लगा।” यही उनकी रिसर्च थी। न कोई मॉड्यूल, न कोई बिग या स्माल डाटा। बस इंसान से इंसान की बात। आपको यहां ये भी पता होना चाहिए कि उनका स्टाफ उनसे खुलकर ‘ना’ कह सकता था अगर उन्हें ये पसंद नहीं आया तो।
उनकी रचनात्मकता हर व्यक्ति के लिए थी। आम आदमी उनके लिए सबसे खास था। अगर उन्हें कोई पुरस्कार मिलता और इससे उनके पड़ोसी को ख़ुशी नहीं होती, उनके लिए उस पुरस्कार का कोई मतलब नहीं रह जाता। उनका विश्वास था, “लोगों का प्यार पहले आना चाहिए, अवॉर्ड बाद में।”
भारत उनके लिए खास मायने रखता था और ये कई तरीक़ों से सामने भी आता था। ये उनके काम में तो ये दिखता ही था, लेकिन ये उनके भारतीय खाने को लेकर जुनून में भी दिखता था। आलू, दाल, छोले, रोटी, चावल, और वह दुनिया के किसी भी कोने में ख़ुश रह सकते थे।
पीयूष पांडे की हम बात करें और उनकी मूँछों का ज़िक्र न हो, ये हो ही नहीं सकता। उनकी मूँछ अक्सर उनसे पहले पहुँच जाती थीं। जब भी वह किसी गहन विचार में होते, उनके हाथ अपने आप मूंछों पर ताव देने लगते। और, फिर कुछ ही सेकंड बाद, वह बोल उठते,“एक काम करो…” और इसके बाद जो कुछ होता वह एक कठिन निर्देश के लिए निकला विलक्षण हल होता या कार्यालय की किसी समस्या का समाधान।
जून 2018 में वह पहले एशियाई बने जिन्होंने कान लॉयन्स पुरस्कारों में लॉयन ऑफ सेंट मार्क पुरस्कार जीता। (“द लायन ऑफ सेंट मार्क” एक प्रतिष्ठित सम्मान है, जो हर वर्ष कान लायंस इंटरनेशनल फेस्टिवल ऑफ क्रिएटिविटी में प्रदान किया जाता है। यह पुरस्कार संचार और रचनात्मकता के क्षेत्र में आजीवन योगदान के लिए दिया जाता है।) यह पुरस्कार उन्होंने अपने भाई प्रसून पांडे के साथ जीता। वह एक खास दिन था, क्योंकि वह बहुत कम मौकों में से एक था जब पीयूष ने औपचारिक वेशभूषा अपनाई थी। पीयूष उस दिन अपनी साधारण सी कमीज़ नहीं पहने थे। वह उस दिन पूरी तरह एक औपचारिक वेशभूषा में नज़र आए। और, इसके लिए उन्हें तैयार करना भी समुद्र लांघने जैसा ही टास्क रहा होगा क्योंकि पीयूष को अपनी कमीज़ों से प्यार था, और उन्हें ये हर कहीं पहनते थे।
भारतीय भाषाएं, ख़ासकर हिंदी, उनके दिल के बहुत करीब रहीं। आखिरकार, वह भाषा विभाग से निकले और पूरी दुनिया पर छा गए। अगर वह इसे पढ़ रहे होते तो तुरंत कहते, इसको हिंदी में भी लिखो और अच्छा होगा।
विचार। हँसी। गीत। लेखन। परिवार। टीम। मूँछें। हिंदी। लोग। ओगिल्वी।
बस हम उन्हें इन सब में याद रखना चाहते हैं। उन चीजों के ज़रिये जो उनके लिये मायने रखती थीं।
हम उम्मीद करते हैं कि जिस ताक़तवर शख़्सीयत के वह इंसान हैं, उनके लिए स्वर्ग भी तैयार होगा।
वहां भी वह अंदर आएंगे और अपने एक चुटकुले से सबके मुखिया बन जाएंगे।
(हिंदी अनुकूलन :पंकज शुक्ल)
(यह पूरा आलेख शनिवार के टाइम्स ऑफ इंडिया के पहले पन्ने पर अंग्रेज़ी में छपा है)

