हदीस की इस्लामी हैसियत : एक इल्मी तहकीकी, जाइज़ा

Date:

    (मुफ़्ती इनामुल्लाह खान) 

हदीस का लुग़वी मअनी:

लफ़्ज़ “हदीस” अरबी ज़बान में बात, गुफ़्तगू, ख़बर और नया के मअनी में इस्तेमाल होता है।

क़ुरआन करीम में यह लफ़्ज़ कई जगह आया हुआ है जैसे:

فَلْيَأْتُوا بِحَدِيثٍ مِثْلِهِ إِنْ كَانُوا صَادِقِينَ

(अत्-त़ूर: 34)

वो इस जैसी कोई एक बात ले आएँ अगर सच्चे हैं।

इस्तिलाही मअनी:

नबी करीम ﷺ के अक़वाल, अफ़आल, तक़रीरात और औसाफ़ को हदीस कहा जाता है।

हदीस की कई क़िस्में हैं।

▪️क़ौली हदीस:

नबी करीम ﷺ के वो अल्फ़ाज़ व कलिमात जो आपने ख़ुद इरशाद फ़रमाए हैं।

मिसाल: إِنَّمَا ٱلْأَعْمَالُ بِٱلنِّيَّاتِ (بخاری)
आमाल का दार व मदार नियतों पर है।

▪️फ़िअली हदीस:

नबी करीम ﷺ के वो आमाल जो सहाबा-ए-किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम अजमईन ने देखे और रिवायत किए।

मिसाल: عَنْ أَنَسٍ رَضِيَ اللَّهُ عَنْهُ قَالَ: رَأَيْتُ رَسُولَ اللَّهِ ﷺ يَرْفَعُ يَدَيْهِ فِي الدُّعَاءِ

(بخاری)

हज़रत अनस रज़ियल्लाहु अन्हु फ़रमाते हैं: मैंने देखा कि रसूलुल्लाह ﷺ दुआ करते वक़्त अपने हाथ उठाते हुए थे।

▪️तक़रीरी हदीस:

नबी करीम ﷺ के सामने किसी सहाबी ने कोई अमल किया या किसी के अमल की ख़बर मिली और आपने ﷺ उस पर ख़ामोशी इख़्तियार की या ताईद फ़रमाई।

मिसाल: हज़रत सलमान फ़ारसी रज़ियल्लाहु अन्हु हज़रत अबू दरदा रज़ियल्लाहु अन्हु के घर तशरीफ़ ले गए और उन्हें कुछ नसीहतें कीं।

قَالَ سَلْمَانُ لَهُ (لأبي الدرداء) إِنَّ لِرَبِّكَ عَلَيْكَ حَقًّا وَلِنَفْسِكَ عَلَيْكَ حَقًّا وَلِأَهْلِكَ عَلَيْكَ حَقًّا فَأَعْطِ كُلَّ ذِي حَقٍّ حَقَّهُ فَأَتَى النَّبِيَّ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ فَذَكَرَ ذَلِكَ لَهُ فَقَالَ النَّبِيُّ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ صَدَقَ سَلْمَانُ (بخاری)

और कहा: बेशक तुम पर तुम्हारे रब का भी हक़ है, तुम्हारी जान और तुम्हारी अहलिया का भी तुम पर हक़ है, लिहाज़ा तुम्हें सबके हुक़ूक़ अदा करने चाहिएँ। फिर हज़रत अबू दरदा रज़ियल्लाहु अन्हु नबी करीम ﷺ के पास आए और आप से यह सारा मामला बयान किया तो आप ﷺ ने फ़रमाया: सलमान ने सच कहा।

▪️सिफ़ाती हदीस:

नबी ﷺ के अख़लाक़, आदात और जिस्मानी औसाफ़ से मुताल्लिक़ रिवायतें।

मिसाल: عَنْ أَنَسِ بْنِ مَالِكٍ قَالَ: كَانَ رَسُولُ اللَّهِ ﷺ أَحْسَنَ النَّاسِ خُلُقًا

(بخاری، مسلم)

हज़रत अनस बिन मालिकؓ फ़रमाते हैं: रसूलुल्लाह ﷺ सबसे ज़्यादा अच्छे अख़लाक़ वाले थे।

नबी करीम ﷺ बहिसियत-ए-मुअल्लिम व शारह

अल्लाह तआला ने क़ुरआन करीम नाज़िल फ़रमाकर उसकी तालीम व तशरीह की ज़िम्मेदारी नबी करीम ﷺ पर आइद फ़रमाई है।

:इरशाद फ़रमाया

وَأَنزَلْنَا إِلَيْكَ الذِّكْرَ لِتُبَيِّنَ لِلنَّاسِ مَا نُزِّلَ إِلَيْهِمْ وَلَعَلَّهُمْ يَتَفَكَّرُونَ

(अन-नहल: 44)

हमने आप ﷺ पर ज़िक्र (क़ुरआन करीम) नाज़िल किया है ताकि आप उसकी वज़ाहत करें जो लोगों के लिये नाज़िल किया गया है और ताकि वो ग़ौर व तदब्बुर करें।

क़ुरआन करीम एक उसूली किताब है जो बुनियादी क़वानीन और कुल्लियात को बयान करती है, जैसे दुनिया में किसी भी क़ानूनी किताब में बुनियादी उसूल दर्ज होते हैं और फिर माहिरीन-ए-क़ानून उनकी तशरीह करते हैं, वैसे ही क़ुरआन करीम में दीन के असासी अहकाम मज़कूर हैं जिनकी वज़ाहत नबी करीम ﷺ ने अपने अक़वाल व अफ़आल के ज़रिए फ़रमा दी है।

नबी करीम ﷺ की अहादीस और सुन्नतें दरअस्ल उन उसूलों की अमली तशरीह हैं, जो दीन को समझने और उस पर अमल करने के लिये नाग़ुज़ीर हैं।

अगर कोई शख़्स अहादीस को नज़रअंदाज़ करके सिर्फ़ क़ुरआन करीम पर अमल करने का दावा करे तो वो कई अहम अहकाम की दुरुस्त तफ़हीम से क़ासिर रहेगा, क्योंकि बहुत से क़ुरआनी अहकाम इज्माली नौइयत के हैं, जिन्हें नबी करीम ﷺ की बयान करदा तफ़सील के बग़ैर समझना मुमकिन नहीं है।

मिसाल के तौर पर, इबादात के बुनियादी अहकाम क़ुरआन करीम में मौजूद हैं लेकिन उनके अमली तरीक़े हमें नबी करीम ﷺ की अहादीस और सुन्नतों से मालूम होते हैं।

इसी तरह, तअज़ीरी क़वानीन के उसूल क़ुरआन करीम में मौजूद हैं लेकिन उनकी तफ़सीलात व शरायत, जिनके तहत वो नाफ़िज़-उल-अमल होंगे, उनके लिये अहादीस से रुजू करना लाज़िमी होगा।

गोया क़ुरआन करीम को समझने के लिये अहादीस व सुन्नन का किरदार कलीदी नौइयत का है।

नबी करीम ﷺ का काम सिर्फ़ क़ुरआन करीम को लोगों तक पहुँचा देना नहीं था बल्कि उसके मआनी, अहकाम और हिदायतों की तशरीह और बयान करना भी था।
और आप ﷺ के बाद यह ज़िम्मेदारी उलमा-ए-उम्मत की है।

क़ुरआन करीम में कई आयात व अहकाम मुख़्तसर और तशरीह-तलब हैं, जिन्हें समझने और उन पर अमल करने के लिये अहादीस की मदद नाग़ुज़ीर है। बिना अहादीस व सुन्नन के उन्हें समझ पाना न सिर्फ़ मुश्किल बल्कि नामुमकिन है।

मिसाल के तौर पर:

इबादात यानी नमाज़, ज़कात, रोज़ा और हज वग़ैरह के अहकाम।

अल्लाह तआला इरशाद फ़रमाते हैं:

أَقِيمُوا الصَّلَاةَ وَآتُوا الزَّكَاةَ

नमाज़ क़ायम करो, ज़कात अदा करो।

नमाज़ व ज़कात का ज़िक्र क़ुरआन करीम में मुतअद्दिद बार आया है, मगर उसकी पूरी तफ़सील और तरीक़े क़ुरआन करीम में मज़कूर नहीं हैं।
इसी लिये…

नबी करीम صلی اللہ علیہ وسلم ने इरशाद फ़रमाया:

صَلُّوا كَمَا رَأَيْتُمُونِي أُصَلِّي

नमाज़ इस तरह अदा करो जैसे मुझे नमाज़ अदा करते हुए देखते हो।

इसी तरह ज़कात की बुनियादी हिदायतें — मसलन अहमियत, फ़र्ज़ियत, मसारिफ़-ए-ज़कात, और अदा न करने पर वईद वग़ैरह का तज़किरा क़ुरआन करीम में है, मगर अमली तफ़सीलात वहाँ मौजूद नहीं हैं।

मिसाल के तौर पर: अमवाल-ए-ज़कात का निसाब क्या होगा और किस माल पर कितनी ज़कात निकालनी है वग़ैरह?

इसी तरह हज के मुतअल्लिक़ इरशाद है:

وَلِلَّهِ عَلَى النَّاسِ حِجُّ الْبَيْتِ مَنِ اسْتَطَاعَ إِلَيْهِ سَبِيلًا

(आल इमरान: 97)

और अल्लाह तआला के लिये लोगों पर इस घर का हज फ़र्ज़ है, जो वहाँ तक पहुँचने की इस्तिता’अत रखता हो।

हज के मसाइल का हाल भी कुछ इसी तरह है।

नबी करीम ﷺ इरशाद फ़रमाते हैं:

خُذُوا عَنِّي مَنَاسِكَكُمْ
(مسلم)

मुझसे तुम अपने हज करने के तरीक़े सीखो।

रोज़े का ज़िक्र सूरह बक़रह में क़द्रे तफ़सील से मज़कूर है। मसलन: रोज़े की फ़र्ज़ियत, उसके अहकाम, रोज़ा रखने वालों के लिये रुख़्सतें और रोज़े की रूहानी व जिस्मानी बरकात।

अल्लाह तआला इरशाद फ़रमाते हैं:

يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا كُتِبَ عَلَيْكُمُ الصِّيَامُ كَمَا كُتِبَ عَلَى الَّذِينَ مِنْ قَبْلِكُمْ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُونَ
(अल-बकरह: 183)

ऐ ईमान वालो! तुम पर रोज़े फ़र्ज़ किए गए हैं, जैसे तुमसे पहले लोगों पर फ़र्ज़ किए गए थे, ताकि तुम परहेज़गार बन जाओ।

इसमें उम्मत की हौसला-अफ़ज़ाई के लिये साबक़ा उम्मतों पर रोज़े की फ़र्ज़ियत का ज़िक्र,
निज़ रमज़ान की रातों में खाने-पीने की इजाज़त और दिन में रोज़ा रखने के हुक्म का ज़िक्र है।

अल्लाह तआला इरशाद फ़रमाते हैं:

كُلُوا وَاشْرَبُوا حَتَّىٰ يَتَبَيَّنَ لَكُمُ الْخَيْطُ الْأَبْيَضُ مِنَ الْخَيْطِ الْأَسْوَدِ مِنَ الْفَجْرِ ثُمَّ أَتِمُّوا الصِّيَامَ إِلَى اللَّيْلِ
(अल-बकरह: 187)

और खाओ-पियो यहाँ तक कि सुबह की सफ़ेद धार (रोशनी) सियाह धार (रात) से वाज़ेह हो जाए, फिर रोज़ा (सुबह सादिक़ से) रात तक पूरा करो।

इस आयत में मज़कूर सफ़ेद धारी और सियाह धारी दोनों अल्फ़ाज़ तशरीह-तलब हैं।

चुनाँचे हज़रत अदी बिन हातिम रज़ियल्लाहु अन्हु फ़रमाते हैं कि:

لَمَّا نَزَلَتْ هَذِهِ الْآيَةُ: (حَتَّى يَتَبَيَّنَ لَكُمُ الْخَيْطُ الْأَبْيَضُ مِنَ الْخَيْطِ الْأَسْوَدِ) عَمَدْتُ إِلَى عِقَالٍ أَبْيَضَ وَعِقَالٍ أَسْوَدَ، فَجَعَلْتُهُمَا تَحْتَ وِسَادَتِي فَجَعَلْتُ أَنْظُرُ فِي اللَّيْلِ، فَلَا يَسْتَبِينُ لِي فَغَدَوْتُ عَلَى رَسُولِ اللَّهِ ﷺ فَذَكَرْتُ ذَلِكَ لَهُ فَقَالَ: إِنَّمَا ذَاكَ سَوَادُ اللَّيْلِ وَبَيَاضُ النَّهَارِ۔

जब यह आयत حَتَّى يَتَبَيَّنَ لَكُمُ الْخَيْطُ الْأَبْيَضُ مِنَ الْخَيْطِ الْأَسْوَدِ नाज़िल हुई, तो मैंने एक सफ़ेद और एक सियाह धागा लिया और उन्हें अपने तकिए के नीचे रखा।
मैं रात के वक़्त उनको देखता रहा, लेकिन मुझे कुछ समझ में न आया, तो सुबह नबी करीम ﷺ की ख़िदमत में हाज़िर हुआ और इसका ज़िक्र किया।
तो आप ﷺ ने फ़रमाया: इससे मुराद रात की तारीकी और दिन की रोशनी है।

(सहीह बुख़ारी, सहीह मुस्लिम)

इन तमाम तफ़सीलात से

لِتُبَيِّنَ لِلنَّاسِ مَا نُزِّلَ إِلَيْهِمْ

का मफ़हूम अच्छी तरह वाज़ेह हो जाता है कि
क़ुरआन करीम दरहक़ीक़त उसूल की किताब है। इसमें क़ानून और कुल्लियात बयान हुए हैं, जिनकी ज़बानी व अमली तशरीह ज़रूरी है और उस तशरीह की ज़िम्मेदारी अल्लाह तआला ने अपने नबी ﷺ को सौंपी है।

निज़ ये कि मुतज़किरा-बाला आयत अहादीस मुबारका की हुज्जियत (authority) की अहम तरीन दलील है।

अब जो लोग ये कहते हैं कि सिर्फ़ क़ुरआन करीम हमारे लिये काफ़ी है —
बेशक क़ुरआन करीम ही सबके लिये काफ़ी है।
क्योंकि क़ुरआन करीम ही किताब-ए-ईमान, किताब-ए-हिदायत और किताब-ए-अमल है। मगर उसे समझने के लिये मुअल्लिम-ए-हक़ीक़ी हज़रत रसूल करीम صلی اللہ علیہ وسلم की तशरीहात बहरहाल दरकार हैं।
और वो तशरीहात नबी करीम صلی اللہ علیہ وسلم के इर्शादात व आमाल यानी अहादीस हैं।
तो लाज़िमी तौर पर अहादीस व सुन्नतों की हुज्जियत साबित हो जाती है।

वाज़ेह रहे कि अगर कोई शख़्स अहादीस मुबारका को छोड़कर सिर्फ़ क़ुरआन करीम को मानने का दावा करे तो वो क़ुरआन करीम की मुजमल आयात व अहकाम की तफ़सीलात कहाँ से लाएगा?
दरअसल ऐसा शख़्स मुकम्मल तौर पर क़ुरआन करीम को भी नहीं मानता है और वो क़ुरआन करीम की इस आयत का मिस्दाक़ है:

أَفَتُؤْمِنُونَ بِبَعْضِ الْكِتَابِ وَتَكْفُرُونَ بِبَعْضٍ
(बकरह: 85)

क्या तुम अल्लाह तआला की किताब के कुछ हिस्से पर ईमान लाते हो और कुछ का इन्कार करते हो?

क़ुरआन करीम में नबी करीम ﷺ की इस अहम ज़िम्मेदारी का तज़किरा और भी कई मक़ामात पर है।

अल्लाह तआला इरशाद फ़रमाते हैं:

هُوَ الَّذِي بَعَثَ فِي الْأُمِّيِّينَ رَسُولًا مِّنْهُمْ يَتْلُو عَلَيْهِمْ آيَاتِهِ وَيُزَكِّيهِمْ وَيُعَلِّمُهُمُ الْكِتَابَ وَالْحِكْمَةَ وَإِن كَانُوا مِن قَبْلُ لَفِي ضَلَالٍ مُّبِينٍ

(सूरह अल-जुमुआ: 2)
वही (अल्लाह तआला) हैं जिन्होंने अनपढ़ों में एक रसूल (मुहम्मद ﷺ) को भेजा, जो उन्हीं में से हैं। वो उन पर उसकी आयात की तिलावत करते हैं, उनका तज़किया करते हैं और उन्हें किताब व हिकमत की तालीम देते हैं, हालाँकि वो लोग इससे पहले खुली गुमराही में थे।

ख़याल रहे कि ये आयात सिर्फ़ रसूलुल्लाह ﷺ के ज़माने तक महदूद नहीं हैं बल्कि क़यामत तक हर मुसलमान के लिये हैं, कि हमेशा लोग क़ुरआन करीम को अहादीस मुबारका की रोशनी में समझकर उसमें ग़ौर व तदब्बुर करें और उसी के मुताबिक़ अपनी ज़िंदगी गुज़ारें।
और ग़ौर व फ़िक्र का ये मतलब हरगिज़ नहीं कि कोई शख़्स अपनी मर्ज़ी से क़ुरआन करीम की मनमानी तफ़सीर करने लगे।

बल्कि नबी करीम ﷺ और सहाबा-ए-किरामؓ की सीरत व हिदायत के मुताबिक़ उसको समझना लाज़िमी है।
लिहाज़ा हदीस व सुन्नत को छोड़कर सिर्फ़ क़ुरआन करीम पर अमल करने का नज़रिया बे-बुनियाद और ग़लत है।
और बिना हदीस व सुन्नत के क़ुरआन करीम के कई अहकाम पर अमल करना मुमकिन भी नहीं है।

मिसालन: क़ुरआन करीम चोरी की हद बयान करता है।
अल्लाह तआला इरशाद फ़रमाते हैं:

السَّارِقُ وَالسَّارِقَةُ فَاقْطَعُوا أَيْدِيَهُمَا جَزَاءً بِمَا كَسَبَا نَكَالًا مِّنَ اللَّهِ وَاللَّهُ عَزِيزٌ حَكِيمٌ
(अल-मायदा: 38)

चोर मर्द हो या औरत, दोनों के हाथ काट दो — ये उनके किये का बदला है, अल्लाह तआला की तरफ़ से इबरतनाक सज़ा।
और अल्लाह तआला ज़बरदस्त, बड़ी हिकमत वाले हैं।

यहाँ चंद बातें वज़ाहत-तलब हैं:

  • इस हुक्म का मुख़ातिब कौन है???
    क्या कोई आम शख़्स भी किसी चोर का हाथ काट सकता है या ये काम हुकूमत-ए-वक़्त और अदालत की ज़िम्मेदारी है?
  • निज़ हाथ कहाँ से काटा जाए — पूरा हाथ या हाथ का कुछ हिस्सा?
  • और कितनी क़ीमत का माल चोरी करने पर ये सज़ा होगी?
  • क्या कोई भूखा आदमी चंद रोटियाँ (ब्रेड वग़ैरह) चुरा ले तो उस पर भी हद जारी करने का हुक्म सादिर होगा?

ज़ाहिर है कि ये सारी तफ़सीलात और हुदूद व तअज़ीरात का अमली ख़ाका क़ुरआन करीम में मौजूद नहीं है।
तो लाज़मन इस आयत पर अमल के लिये अहादीस की तरफ़ रुजू करना होगा, कि नबी करीम صلی اللہ علیہ وسلم ने इस तरह की हुदूद जारी फ़रमाते हुए दर्ज़-बाला बातों को किस तरह मलहूज़-ए-अमल रखा था।

इस लिये क़ुरआन करीम को कमाहक़्क़ुहू समझना और उस पर अमल करना हदीस व सुन्नत के बग़ैर मुमकिन नहीं है।
जिससे साबित होता है कि क़ुरआन करीम की तरह अहादीस मुबारका भी इस्लाम का बुनियादी माख़ज़ हैं।

नबी करीम صلی اللہ علیہ وسلم इरशाद फ़रमाते हैं:

تَرَكْتُ فِيكُمْ أَمْرَيْنِ لَنْ تَضِلُّوا مَا تَمَسَّكْتُمْ بِهِمَا: كِتَابَ اللَّهِ وَسُنَّتِي
(موطأ امام مالک)

मैं तुम में दो चीज़ें छोड़कर जा रहा हूँ, जब तक तुम उन्हें मज़बूती से थामे रहोगे, हरगिज़ गुमराह नहीं होगे: अल्लाह तआला की किताब और मेरी सुन्नत।

सुन्नन अबू दाऊद में है:

नबी करीम صلی اللہ علیہ وسلم इरशाद फ़रमाते हैं:

عَلَيْكُمْ بِسُنَّتِي وَسُنَّةِ الْخُلَفَاءِ الرَّاشِدِينَ الْمَهْدِيِّينَ، تَمَسَّكُوا بِهَا وَعَضُّوا عَلَيْهَا بِالنَّوَاجِذِ
(سنن ابو داؤد)

तुम पर मेरी सुन्नत और मेरे हिदायत-याफ़्ता ख़ुलफ़ा की सुन्नत पर अमल करना लाज़िम है, उसको मज़बूती से पकड़ लो और उस पर दाँत जमा लो।

नबी करीम ﷺ की इताअत = अल्लाह तआला की इताअत

नबी करीम صلی اللہ علیہ وسلم अल्लाह तआला के पैग़म्बर और नुमाइंदे हैं। आपका हर क़ौल व अमल अल्लाह तआला के हुक्म के मुताबिक़ है।
इसलिये आपकी इताअत दरअसल अल्लाह तआला की इताअत व फ़रमानबरदारी है।

क़ुरआन करीम में कई मक़ामात पर नबी करीम ﷺ की इताअत का हुक्म दिया गया है और आपकी इताअत को अल्लाह तआला की इताअत क़रार दिया गया है।

इरशाद है:

مَّن يُطِعِ ٱلرَّسُولَ فَقَدْ أَطَاعَ ٱللَّهَ
(सुरह अन-निसा: 80)

जिसने रसूल की इताअत की, उसने अल्लाह तआला की इताअत की।

وَمَا آتَاكُمُ ٱلرَّسُولُ فَخُذُوهُ وَمَا نَهَىٰكُمْ عَنْهُ فَٱنتَهُواْ
(सूरतुल हश्र: 7)

जो कुछ रसूल तुम्हें दें, वह ले लो, और जिस से मना करें, उस से रुक जाओ।

وَإِن تُطِيعُوهُ تَهْتَدُواْ
(सूरतुन नूर: 54)

और अगर तुम इस (नबी) की इताअत करोगे तो हिदायत पाओगे।

فَلَا وَرَبِّكَ لَا يُؤْمِنُونَ حَتَّىٰ يُحَكِّمُوكَ فِيمَا شَجَرَ بَيْنَهُمْ ثُمَّ لَا يَجِدُواْ فِيٓ أَنفُسِهِمْ حَرَجًا مِّمَّا قَضَيْتَ وَيُسَلِّمُواْ تَسْلِيمًا
(सूरतुन निसा: 65)

पस (ऐ नबी!) तुम्हारे रब की क़सम! ये लोग मोमिन नहीं हो सकते जब तक कि ये अपने झगड़ों में तुम्हें हाकिम न बनाएँ और फिर जो कुछ तुम फ़ैसला करो, उस पर अपने दिल में कोई तंगी महसूस न करें और उसे मुकम्मल तौर पर तस्लीम कर लें।

एक ग़लत फ़हमी का इज़ाला

कुछ लोग कहते हैं कि अहादीस की तद्वीन नबी करीम ﷺ से तक़रीबन दो सौ साल के बाद हुई, इसलिए उन पर कैसे एतिमाद किया जा सकता है?

जवाब: यह सवाल कम इल्मी पर मबनी है।
नबी करीम ﷺ के ज़माने ही में अहादीस को ज़बानी याद करने और लिख कर रिकॉर्ड करने का सिलसिला शुरू हो गया था।
कई सहाबा-ए-किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम अजमईन ने नबी करीम ﷺ की अहादीस को ज़बानी याद रखने के साथ-साथ तहरीरी सूरत में भी महफ़ूज़ किया था।

ज़ैल में कुछ ऐसे मारूफ़ सहिफ़ों (तहरीरी मज़मूओं) के नाम दिए जा रहे हैं जो सहाबा-ए-किराम रज़ियल्लाहु अन्हुम अजमईन ने मुरत्तब किए थे।

सहीफ़ा अली बिन अबी तालिब रज़ी अल्लाहु अन्हु
हज़रत अली रज़ी अल्लाहु अन्हु का यह सहीफ़ा नबी करीम ﷺ के बराहِे रास्त अरशादात पर मुश्तमिल था, जिसमें हदूद, क़िसास, दियत और दूसरे क़ानूनी अहकाम दर्ज थे।
इसका ज़िक्र सहीह बुख़ारी और दूसरी कुतुब में मिलता है।

(आज भी किताब़ी शक्ल में मौजूद है)

सहीफ़ा जाबिर बिन अब्दुल्लाह रज़ी अल्लाहु अन्हुमा

हज़रत जाबिर बिन अब्दुल्लाह अंसारी रज़ी अल्लाहु अन्हुमा की मुरवियात भी कसीर तादाद में हैं।

इमाम त़हावी उनके शागिर्दों का क़ौल लिखते हैं:
كُنَّا نَأْتِي جَابِرَ بْنَ عَبْدِ اللَّهِ لِنَسْأَلَهُ عَنْ سُنَنِ رَسُولِ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ تَعَالَىٰ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ فَنَكْتُبَهَا
(شرح معاني الآثار للطَّحَاوِي، ۲/۳۰۴)

हम लोग हज़रत जाबिर बिन अब्दुल्लाह रज़ी अल्लाहु अन्हुमा की ख़िदमत में हाज़िर होते ताकि ह़ुज़ूर नबी करीम ﷺ की सुन्नतें मालूम करके क़लमबंद करें।

इनके अलावा
सहीफ़ा हम्माम बिन मुनब्बह है। हम्माम बिन मुनब्बह, हज़रत अबू हुरैरा रज़ी अल्लाहु अन्हु के शागिर्द हैं।
यह मज़मूआ अस्सहीफ़ा अस्सहीहा के नाम से जाना जाता है।
50 हिजरी में लिखा गया था, जिसमें 138 हदीसें दर्ज हैं।

और

सहीफ़ा सअद बिन उबादा रज़ी अल्लाहु अन्हु

सहीफ़ा समरा बिन जुंदुब रज़ी अल्लाहु अन्हु वग़ैरह भी अहादीस के मज़मूए हैं जिन्हें सहाबा-ए-किराम रज़वानुल्लाहि अलैहिम अजमईन ने क़लमबंद किये थे।

ये सहीफ़े बाद में ताबेईन और मुहद्दिसीन के ज़रिये हदीस की बड़ी कुतुब में शामिल कर दिये गये, जैसे सहीह बुख़ारी, सहीह मुस्लिम, सुनन अबी दाऊद वग़ैरह।
ये इब्तिदाई तहरीरी मज़मूए बाद के दौर में मसानिद, सुनन और सिहाह जैसी हदीस की मशहूर किताबों की बुनियाद बने।

अल्लाह तआला हमें क़ुरआन करीम व अहादीस मुबारका की अहमियत समझने और उन पर अमल की तौफ़ीक़ अता फ़रमाए।

आमीन।

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