(रईस खान)
सीमांचल की सियासत इस वक़्त बिहार की सबसे दिलचस्प और सबसे तल्ख़ कहानी है। यहाँ की हवा में कई बरसों से एक सवाल तैरता रहा है,क्या मुसलमान सिर्फ़ “मतदाता” हैं या फिर इस राज्य की सियासत में उनकी हिस्सेदारी भी मुकम्मल होनी चाहिए? इसी सवाल की तह में जाता है ओवैसी की पार्टी इत्तेहादुल मुस्लमीन का उभरना, और महागठबंधन का बार-बार इस इलाक़े में चारों खाने चित हो जाना।
सीमांचल, किशनगंज, अररिया, पूर्णिया, कटिहार, ये वो ज़मीने हैं जहाँ मुस्लिम आबादी कई जगह आधे से ज़्यादा है। पुरानी राजनीति में ये इलाक़ा सीधा-सा समझा जाता था: मुसलमान महागठबंधन को वोट देंगे, यादव आरजेडी को थामे रहेंगे और चुनाव अपने आप तय हो जाएगा। लेकिन 2020 में इत्तेहादुल मुस्लमीन ने पाँच सीटें जीत लीं और महागठबंधन को ऐसा झटका दिया जिसकी गूँज आज तक चल रही है। और अब ओवैसी की छह सीटें इस बात का एलान हैं कि सीमांचल का वोटर अब सिर्फ़ “गठबंधन की मज़बूरी” नहीं, बल्कि खुद की आवाज़ की तलाश में है।
असल मसला यह है कि महागठबंधन मुसलमानों से वोट तो लेता है, मगर उन्हें हिस्सेदारी उतनी नहीं देता जितनी उनकी आबादी का वज़न है, जितनी उनकी उम्मीदें हैं। टिकट बँटवारे से लेकर नेतृत्व तक, मुसलमानों को अक्सर “ज़रूरत पड़ने पर याद किए जाने वाला वोट बैंक” समझ लिया जाता है। सीमांचल के नौजवान इस बात को बहुत तेज़ी से महसूस कर रहे हैं, और यही वजह है कि इत्तेहादुल मुस्लमीन जैसी पार्टी, जिसे पहले “सीमांचल की बाहरी” कहा जाता था, अब वहीं की “सियासी आवाज़” बन गई है।
ओवैसी चाहते क्या हैं? बहुत सी बातों पर उनसे इख़्तिलाफ़ हो सकता है, लेकिन उन्होंने एक बात तो साफ़ कर दी, मुसलमान सिर्फ़ किसी गठबंधन की जेब में रखी हुई चाबी नहीं हैं। उनकी अपनी चिंता है, अपना गुस्सा है, अपनी उम्मीद है, अपनी सियासी पहचान है। सीमांचल का वोटर कहता है: “अगर हमारी आबादी तीस-चालीस फ़ीसदी है, तो हमारा सियासी वज़न दो-चार टिकट पर क्यों अटका हुआ है?” महागठबंधन के दफ़्तरों में इस सवाल का कोई ठोस जवाब नहीं मिलता, और इत्तेहादुल मुस्लमीन इस खाली जगह को भर देती है।
अगर महागठबंधन ने ओवैसी को साथ ले लिया होता, उन्हें सीमांचल में कुछ सीटें देकर बराबरी की मजलिस बनाई होती, तो शायद आज हालात कुछ और होते। लेकिन “ओवैसी को साथ लेने से ध्रुवीकरण होगा”, इस सोच ने महागठबंधन को वही चोट खिला दी जिसका डर था। सीमांचल की सीटें इतनी नज़दीकी होती हैं कि दो-तीन हज़ार वोट उधर-इधर होते ही पूरा नतीजा बदल जाता है। इत्तेहादुल मुस्लमीन जब अलग लड़ती है तो वो सिर्फ़ अपनी जीत नहीं दर्ज करती, वो महागठबंधन के लिए हार का दरवाज़ा भी खोल देती है। और यह सब महागठबंधन की अपनी कमज़ोरियों से शुरू होता है, मुसलमानों की हिस्सेदारी को उनकी आबादी के मुताबिक़ अहमियत न देना।
सीमांचल के मुसलमान अब पहले जैसे खामोश नहीं हैं। वे जानते हैं कि उनकी बात बिना दबाव के नहीं सुनी जाएगी। और यह दबाव इत्तेहादुल मुस्लमीन पैदा कर रही है। यह इलाक़ा सियासत को बदलने की पूरी क़ुव्वत रखता है, लेकिन उस बदलाव का फायदा किसे मिलेगा, यह महागठबंधन की अगली चाल पर निर्भर करेगा। अगर वे मुसलमानों को सिर्फ़ “वोट” समझते रहे, तो सीमांचल इत्तेहादुल मुस्लमीन को और मज़बूत बना देगा। लेकिन अगर वे उन्हीं को बराबरी की हिस्सेदारी वाले साझेदार की तरह अपनाएँ, तो सीमांचल फिर से उनके साथ भी खड़ा हो सकता है।
सियासत का असूल साफ़ है, जो सुना जाए, वही साथ देता है। सीमांचल आज यही कह रहा है: हमें सुना जाए, हमें गिना जाए, और हमें हिस्सेदारी दी जाए।

