(रईस खान)
आज जब यह ख़बर मिली कि धर्मेन्द्र जी इस दुनिया से रुख़्सत हो गए, तो बरसों पुरानी एक मुलाक़ात अचानक मेरी आँखों के सामने आ खड़ी हुई, एक साधारण-सी सुबह, एक बिल्कुल अनपेक्षित पल, और एक ऐसे इंसान की मुस्कान, जिसने मेरे भीतर हमेशा के लिए एक नरमी छोड़ दी।
यह बात मुंबई की है, अंधेरी वेस्ट के भवन्स कॉलेज की नर्सरी की। मैं उस समय अपनी पत्रकारिता की राह पर अभी नया था। किसी ने अचानक बताया, “धर्मेन्द्र जी आए हैं, कुछ प्लांट्स लेने के लिए, मिलना हो तो आ जाओ।” मैं किसी तैयारी के बिना वहाँ पहुँचा। जेब से अपनी छोटी-सी डायरी निकाली, इतनी छोटी, जैसे किसी छात्र की जेब में दबा कोई ख्वाब। मैंने हिम्मत करके कहा, “सर, मुझे आपका ऑटोग्राफ चाहिए।” धर्मेन्द्र जी ने मुस्कुराकर वह डायरी ली और बड़े प्यार से अपने हस्ताक्षर किए।
उनके उस एक छोटे-से व्यवहार में कितनी शालीनता, कितनी नफ़ासत थी, यह मैं शब्दों में बयान नहीं कर सकता। कोई ताम-झाम नहीं, कोई स्टारडम का बोझ नहीं, बस एक इंसान, दूसरे इंसान से अपनापन रखते हुए।
वह ऑटोग्राफ मैंने बहुत दिनों तक सँभालकर रखा। अब वह कहाँ है, यह नहीं जानता, मगर जिस सलीके और अदब से वे मुझसे पेश आए, वह एहसास आज भी वैसा ही ताज़ा है।
बाद में पत्रकारिता के काम से मेरी मुलाकातें कई और चेहरों से भी हुईं, रेखा जी से एक एग्ज़िबिशन में, राज बब्बर जी से फ़ोन पर कई बार बात हुई, और भी अनेक लोग मिले। मगर मेरे भीतर कभी यह चाह नहीं जगी कि मैं सितारों के पीछे भागूँ। मुझे मेरी पत्रकारिता ही प्रिय थी, और मैं उसी दुनिया का होकर रहना चाहता था।
लेकिन धर्मेन्द्र जी…
उनसे हुई वह पहली और आख़िरी मुलाक़ात मेरे भीतर एक इंसानी गर्माहट की तरह बस गई। शायद इसलिए कि उन्होंने अपने व्यवहार से यह साबित किया कि महानता केवल पर्दे पर नहीं होती, वह रोज़मर्रा की उन छोटी-छोटी बातों में भी झलकती है जहाँ कोई आपको सम्मान देता है, आपका ख्याल रखता है, और आपके छोटे-से अनुरोध को भी बड़े दिल से स्वीकार करता है।
आज जब उनका इंतकाल हुआ है, तो मुझे वह पल याद आ रहा है, एक नौजवान पत्रकार, एक छोटी डायरी, और एक फ़िल्मी दुनिया का सितारा जो अपने दिल से कहीं ज़्यादा बड़ा था।
धर्मेन्द्र जी, आपकी शालीनता, आपकी इंसानियत, और आपका वह एक हस्ताक्षर… मेरी स्मृति में हमेशा ज़िंदा रहेंगे। आपकी रूह को सुकून मिले यही दुआ है।
यह ख़िराज-ए-अक़ीदत, मेरी तरफ़ से एक छोटी-सी अमानत।

