जदीद काश्तकारी  _ कानपुर में रेशम की खेती से बदल रही है गाँवों की तस्वीर 

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कानपुर के घाटमपुर, पतारा और भीतरगाँव में रेशम का काम तेजी से बढ़ रहा है। जहाँ पहले रेशम की खेती का नाम भी नहीं था, आज वहीं करीब 600 किसान इससे अपनी अतिरिक्त और पक्की आय कमा रहे हैं।

अरण्डी की पत्तियों से एरी रेशम तैयार होता है। किसान खेतों में अरण्डी लगाते हैं और उसकी पत्तियों पर कीट पालते हैं। साल में 3–4 बार यह काम आसानी से हो जाता है। एक किसान 100–150 डीएफएल लगाकर 50–60 किलो कोया बना लेता है। व्यापारी गुजरात, बंगाल, महाराष्ट्र और बनारस से गाँव में ही आकर कोया खरीद लेते हैं। इसलिए किसानों को बाज़ार की चिंता नहीं रहती।

गाँव के राजेश, जितेंद्र और सुधीर जैसे किसानों का कहना है कि रेशम ने खेती की अनिश्चितता खत्म कर दी है। हर चक्र में नकद आय मिल जाती है, खर्च भी कम है, और प्रशिक्षण मिलने से गुणवत्ता और उत्पादन दोनों बढ़े हैं।

मलबरी (शहतूती) रेशम भी अब तेज़ी से बढ़ रहा है, जिसे उसकी चमक और ऊँची कीमत के कारण ‘वाइट गोल्ड’ कहा जाता है। बिल्हौर के दोनों सरकारी फार्मों की मदद से 40–50 किसान यह काम कर रहे हैं। कई महिलाएँ भी जुड़ रही हैं, जिससे घर की आमदनी बढ़ रही है।

रेशम विभाग के अनुसार, जिले में साल 2024-25 में 389.6 कुंतल रेशम का उत्पादन हुआ है। किसानों को अरण्डी और कोया से मिलकर 60–65 हजार रुपये प्रति एकड़ की अतिरिक्त सालाना आय मिल रही है, जो खेती के साथ एक स्थिर सहारा बन गई है।

जिलाधिकारी जितेंद्र प्रताप सिंह के अनुसार, सरकार की कोशिश है कि किसानों को सुरक्षित, पक्की और अतिरिक्त आय मिले। रेशम कीटपालन उसी दिशा में एक सफल मॉडल बन गया है और अब इसे और गाँवों में बढ़ाया जा रहा है।

जाहिर है रेशम ने कानपुर के गाँवों में खुशहाली की नई राह खोल दी है, कम खर्च, कम जोखिम और बार-बार नकद आय वाला भरोसेमंद काम।

क़ौमी फरमान डिजिटल मीडिया नेटवर्क

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